कालसर्प योग – अभिज्ञान एवं सृजन
शब्द एवं उसमें निहित बहुआयामी अर्थ ही भाव, विभाव तथा प्रभाव को संयोग जिस ज्योतिषीय योग को घटित करता हैI वह कालसर्पयोग जन्मांग विवेचन के सर्वाधिक चर्चित व चिंतनीय बिन्दुओं में एक है I स्वाभाविक है कि ज्योतिर्विज्ञान के आदिकाल से आघावाधि कालसर्पयोग विभिन्न भ्रमों, व आशंकाओं से मानव मन को उव्दिग्न करता रहा है I इस परिदृश्य में अज्ञान, अपूर्ण विवेचन एवं प्रमाद की भूमिका भी सम्मिलित हैI इस श्रमोत्पादक योग का सम्यक् विश्लेषण ही परिदृश्य में सकारात्मक हस्तक्षेप कर सकता हैI
छायाग्रह राहू एवं केतु कालसर्पयोग के दो ध्रुव हैI सर्वप्रथम इनका प्रासंगिक अभिज्ञान अनिवार्य हैl जब समस्त ग्रह राहू और केतु की धुरी के एक ओर हो तथा शेष अर्ध्दाश ग्रहरहित हो तब कालसर्पयोग की संरचना होती हैI राहु और केतु सर्वदा परस्पर समसप्तक संस्थित हो, तो क्षेत्र रिक्त होगाI इस ग्रहयोग के उत्तरदायी राहु एवं केतु का संक्षिप्त परिचय अपेक्षित हैI
1.राहु-केतु: प्रासंगित परिचय-
यह सुविदित है राहु-केतु ग्रह नहीं, छायाग्रह हैI किसी भी दूरदर्शी यंत्र से इन्हें देखना असंभव हैl अनेक प्रश्न हैं l इन छायाग्रहों के मूल ग्रह कौन है? ग्रह छाया का अस्तित्व किस रूप में है l जिसे राहु तथा केतु कहा गया है? उत्तर अत्यंत सुचिंतित हैl सूर्य के मार्ग को जिन दो बिन्दुओं पर चन्द्र का मार्ग काटता है उसका उपरिवर्ती बिंदु राहु तथा निम्नवर्ती बिंदु केतु कहा जाता हैl पृथ्वी 365 दिनों में सूर्य की एक परिक्रमा पूर्ण करती है,चन्द्रमा 24 घंटे में पृथ्वी की एक परिक्रमा करता हैl आभास यह होता है कि सूर्य एवं चन्द्रमा पृथ्वी को परिक्रमा कर रहे हैI यह रेलगाड़ी स्टेशन की दिशा में गतिशील हो अथवा स्टेशन रेलगाड़ी के समीप आने लगे,प्रतीत एक जैसा होगाI इसी प्रकार पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा अथवा पृथ्वी की सूर्य द्वारा परिक्रमा एक जैसी आभासित होगीI सूर्य एवं चन्द्रमा की कक्षा परस्पर जिस स्थल पर कटती है I अथवा इन प्रकाश पुंज ग्रहों की कक्षाओं का सक्रमण क्षेत्र, राहु एवं केतु नाम से प्रसिध्द है I
राहु – केतु छायाग्रहों मानव जीवन में अत्यन्त प्रभावकारी भूमिका है I जीवन के 25 वर्ष इन छायाग्रहों के अधिपत्य में रहते हैI 18 वर्ष राहु की महादशा तथा 7 वर्ष केतु की महादशा से संचालित होते हैl साथ ही अन्यान्य सुर्यादि ग्रहों की दशाओं के मध्य अन्तर्दशा व प्रत्यतर दशा में भी राहु-केतु की उपस्थिति होती ही है I यह समय 19 वर्ष, 09 माह, 15 दिन का हैI समग्रत 44 वर्ष 09 माह 15 दिन की जीवनावधि राहु-केतु की कृपा-अकृपा पर निर्भर होती है l अत: छायाग्रहों की वास्तविक क्षमता अपरिसीम हैl विभिन्न प्रकार की शुभ अशुभ स्थितीयां इनकी ऊर्जा से निरुपित होती हैI एक अतिविशिष्ट स्थिति निरूपण को कालसर्पयोग संज्ञा देना सर्वथा समीचीन है I
2. कालसर्प योग- तर्क एवं दुश्चक –
यह विचित्र प्रतीत होता है कि इस महत्वपूर्ण योग के विषय में प्रचुर मतवैभिन्य हैI महर्षि पराशर एवं वराह मिहिर के आकर ग्रन्थ इस सन्दर्भ में मौन हैI परिणामत: ग्रहयोग विश्लेषण ग्रंथो/पुस्तकों से कालसर्प योग विलुप्त हैI डॉक्टर बीo वीo रामन की प्रख्यात पुस्तक ‘तीन सौ मह्त्वपूर्ण योग’ में इस योग का अत्यंत संक्षिप्त उल्लेख ही प्राप्त होता हैI किन्तु इससे कदापि यह सिध्द नहीं होता कि ज्ञान विज्ञान की यात्रा में कहीं सीमा आ जाती हैI विनम्र निवेदन है कि परम्परा में प्रयोग एवं अनुसंधान, अनुशीलन द्वारा जिज्ञासाओं को परिशांत कर रहा हैI अग्रांकित विवरण इसी सन्दर्भ में पठनीय हैI यदि समस्त ग्रह पापी अथवा क्रूर ग्रहों की परिधि में सम्मिलित हो जाएं तो ग्रहों की नैसर्गिक शुभता ग्रहण में परिवर्तित हो जाती हैं इससे समस्त जीवन, उत्थान, पतन के इंद्रजाल में संत्रस्त हो उठता हैI सूर्य एवं चन्द्र दो ग्रहों के मध्य हों तो क्रमश: उभयचरी व दुरुधरा योग निर्मित होते हैI
किसी भाव के दोनों ओर पाप अथवा शुभ ग्रह संस्थित हो, तो पापकर्तरि अथवा शुभकर्तरि योग संपन्न होता हैI चन्द्रमा दोनों ओर से ग्रहरहित हो तो केमद्रुम नामक बाधाकारक योग प्रकट होता हैI पापग्रहों के मध्य स्थित शुक्र द्विविवाह की संभावना और बृहस्पति संतति सुख बाधा का संकेत करते हैI
यदि ये समस्त सातों ग्रह राहु-केतु सदृश क्रूरतिक्रूर ग्रहों से आच्छान्न हो, तो दुष्परिणामों की कल्पना सहज हैI
क्या समस्त ग्रहों का आधिपत्य करकत्व एवं युक्ति शुभत्व आकांत नहीं होता? अन्य तर्कों का विस्तार यही सिध्द करेगा कि राहु केतु आक्रांत सप्तग्रह स्थित किंचित उपेक्षनीय नहीं हैI इससे व्यक्ति की प्रगति,उन्नति,समृध्दी,संतति,दाम्पत्य स्थिति,शारीरिक संस्थिति संकटापन हो सकती हैI यद्यपि ज्योतिष के पांच कालजयी ग्रंथो में संयोगवश कालसर्पयोग का विवरण अनुपलब्ध हैI तथापि सारावली तथा मानसागरी सदृश ग्रंथो में अन्य घातक कोटि का विचारणीय ग्रह योग हैI इसकी अवरोधक अथवा बाधामुलक भूमिका सुस्पष्ट करने हेतु एक उदाहरण द्रष्टव्य हैI यदि किसी के पास स्वर्ण मुद्राओं रत्नों,अमूल्य आभूषणों से संपन्न विशाल कलश हो, किन्तु उसे विषधर सर्पों ने आवेष्टित कर लिया हो,तो कलश निहित विलुप वैभव प्राप्त करने के लिए सर्पों का परिहार अपरिहार्य हैI इसी प्रकाश विभिन्न शुभ ग्रह योग सज्जित किन्तु कालसर्पयोग वेष्टित जन्मांग के सुफल तब तक उपलब्ध नहीं होते है, जब तक कालसर्पयोग का शमन नहीं होता I समस्त सकारात्मक, शुभ उत्साहवधर्दक फल संकटग्रंस्त हो जाते हैI अशुभ फल निरंतर परिवृद्धिमान होते हैI स्थितियां नियंत्रण का अतिक्रमण कर जाती हैI कालसर्पयोग युक्ति जन्मांग से संदर्भित जातक बहुआयामी विपत्तियों की विद्रूपता वहन करने हेतु विवश हो जता हैI
3.कालसर्प योग की शास्त्रसंगत फलित ज्ञान-
विभिन्न शास्त्रों में कालसर्प योग की जो परिभाषा प्रतिपादित की गयी है वह अग्रांकित है-
अग्रे वा चेत पृष्ठतोऽप्येक पाश्र्वे
भानां षटके राहूकेतो न खेत:I
योगप्रोक्त: कालसर्पश्च यस्मिन
जातो जाता वाऽर्था पुत्रार्तिमीयात्
अर्थ-यदि राहु आगे हो तथा केतु पीछे हो, अथवा केतू आगे तो तथा राहु पीछे हो और सूर्यादि सातों ग्रह राहु से केतु मध्य अथवा केतु से राहु के मध्य संस्थिक हो, तो कालसर्प नामक योग की संरचना होती हैI इस योग में जन्म लेने वाला व्यक्ति धन, पुत्र सुख आदि से वंचित होता हैI
राहुत: केतुमध्ये आगच्छन्ति यदा ग्रह:I
कालसप्रस्तु योगोऽयं कथतं पूर्वसुरिभी:I
अर्थ-राहु से केतु के मध्य में जब सभी ग्रह आ जाये,तो कालसर्प नामक योग की संरचना होती हैI ऐसे पूर्व में भी मनीषियों ने कहा हैI
अग्रे राहुरथे केतु: सर्वे मध्ये गतागृहा:I
योगं कालसर्पाखयं नृपाशस्या विनाशनम् I I
अर्थ- यदि राहु आगे हो तथा बाद में हेतु हो एवं राहु ओए केतु के मध्य सभी ग्रह स्थित हो, तो कालसर्प नामक योग कहा गया है, जो राजयोग का विनाश करने वाला होता हैI
उपरोक्त श्लोकों का शब्दार्थ कालसर्प योग के सृजन को स्पष्ट रूप से सूत्रबध्द कर रहा हैI राहु आगे हो तथा केतु पीछे हो और सभी ग्रह राहु व केतु के मध्य संस्थित हों, तो कालसर्प योग की संरचना स्पष्ट रूप से परिभाषित होती है I जन्मांग में कालसर्प योग की स्थापना होने पर विनाश, अवरोध तथा निरंतर कष्ट की स्थिति जीवन को अक्रांत करती हेI
उल्लेखनीय है कि राहु से केतु के मध्य सातों ग्रहों के संस्थित होने पर तो कालसर्प योग की संरचना होती ही हैI परन्तु उपरोक्त श्लोकों में स्पष्ट रूप से वर्णित है कि केतु से राहु के मध्य भी सातों ग्रहों के स्थित होने पर कालसर्प योग का निर्माण होता है I किन स्थितियों में कालसर्प योग प्रभावशाली होता है और किन परिस्थितियों में प्रभावहीन होता है इसका अनुभव सिध्द विश्लेषण निम्नांकित है I
4. राहु- केतु की दृष्टी सम्बन्धी मर्म-
1.राहु-केतु को पाश्चात्य ज्योतिष में महत्व नहीं दिया गया है, किन्तु भारतीय इन्हे नवग्रह में आदि काल से मानते आये हैंI इनका भगवान प्रभाव हैI विंशोत्तरी दशा में इनके दशा भोग काल के वर्ष है I इसकों स्थिति का प्रत्यक्ष प्रभाव अनुभव में आता हैI
2.राहु-केतु ठोस आकाशीय पिण्ड न होकर छाया ग्रह, तमौ नाम से संबोधित किये गये हैI इनका फिर भी इतना महत्व है कि नवग्रहों में इनका पूजन होता हैI
3.सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विध्दानों में राहु-केतु की दृष्टी के विषय में मतभेद हैI
सर्वप्रथम यह ज्ञान होना आवश्यक है कि राहु-केतु है क्या? आकाशीय पिंडो के विषय में तो आधुनिक विज्ञान ने प्रचुर अन्वेषण कर लिया है और अभी भी प्रयासरत है किन्तु राहु-केतु दृश्यमान ग्रह नहीं हैI यहां अमृत मंथन के समय को राहु द्वारा देवता के वेश में अमृतपान करने की पौराणिक कथा में समस्या का समाधान नहीं होगाI वह तो प्रतीकात्मक भाषा में एक गूढ़ आध्यात्मिक विषय हैI दृष्टी के निर्णय के लिए वैज्ञानिक आधार चाहिए इसलिए खगोल की दृष्टी से राहु केतु क्या हैI यदि हम इसे समझ लें, तो हमें इनकी दृष्टी समझने में सुविधा होगीI
खगोल की दृष्टी से राहु-केतु वे दो अदृश गणितगत बिंदु है जहां चन्द्रमा की कक्षा क्रांति वृत्त को कटती हैI इनको राहु और केतु कहते हैI चूँकि ये दिखाई नहीं देते है इसलिए इन्हें छाया ग्रह या तमौ कहा गया हैI
इस तथ्य का हमारे प्राचीन आचार्यों को सदा से ज्ञान है यदि न ज्ञान होता, तो सूर्य-चन्द्र ग्रहण की शुध्द गणना कैसे करतेI इसलिए इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि ये बिंदु आधिक विज्ञान की खोज है, पूर्व के ज्योतिविर्दों को इनका ज्ञान नहीं थाI ग्रहण में इनका अत्यंत महत्व हैl दूसरे शब्दों में ग्रहण के समय छाया के रूप में इनका दर्शन होता हैI यह गणितागत कटान बिंदु सदैव एकदूसरे से 180 अंश पर रहते हुए गतिशील हेI ये वक्र गति में चलायमान हैI इनकी एक निश्चित गति, 3 कला 11 विकला दैनिक हैI
इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया कि राहु-केतु ठोस आकाशीय पिंड नहीं है किन्तु ग्रहण के कारण, संवेदनशील काल गणना के लिए महत्वपूर्ण हैI इसलिए भारतीय मनीषियों ने अपने प्रज्ञाचक्षु से इनके प्रभाव को समझ कर इन्हें नवग्रहों में स्थान दिया हैI इनके स्थान परत्व फल भी दिये हैI
यदि प्रकाश का प्रभाव है तो छाया का भी प्रभाव है, भले ही वह नकारात्मक होI यदि प्रकाश जीवन, चेतना, क्रियाशीलता का प्रतीक है तो तम (अन्धकार) इसका नकारात्मक पक्ष हैI अन्धकार का अर्थ है-प्रकाश का अभावI सूर्य के प्रकाश में अवरोध उत्पन्न कर छाया का निर्माण करता हैI इसलिए वृक्ष की छाया तले दूसरे पौधे नहीं पनपते, पीले पड़ जाते हैI ऐसे ही राहु कुंडली के जिस भाव में स्थित होता है उस स्थान का विनाश करता हैI कुछ ग्रंथों में राहु-केतु की उच्च राशि का वर्णन आया है-वृषभ और एक मत से मिथुन राहु की उच्च राशि मानी गयी हैI ऐसे ही स्वराशि का भी उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु अनुभव में यही आता है कि यह चाहे जिस राशि में हो,जिस भाव में होता हैI इससे सम्बंधित विषय वस्तुओं पर अपनी छाया का दुष्प्रभाव अवश्य डालता हैI यहां यह शंका उत्पन्न होती है कि फिर महर्षि पराशर ने राहु को योगकारक क्या बताया?
जैसे-लघु पाराशरी में अंकित है:-
तमौ ग्रहौ शुभारूढ़वासंबंधेन केनचित्I
अन्तर्दशानुसारेण भवेतां योग कारकौII
वे कौन सी परिस्थितियां है जब राहु शुभ फल दे जाता है इसे उपर्युक्त श्लोक में स्पष्ट किया हैI “शुभ योग कारक ग्रह के साथ सम्बन्ध होने से शुभ फल देता हैI योगकारक हो जाता हैI जैसे-त्रिकोणेश के साथ केंद्र में बैठने से अथवा केंद्र के स्वामी के साथ त्रिकोण में स्थित होने से, विशेष कर नवमेश के साथ दशम में या दशमेश के साथ नवम में होने से योगकारक हो जाता हैI
इसी प्रकार हम राहु की वृष या मिथुन उच्च राशि मान ले तो उसमें भी हम शुभ फल की कल्पना कर सकते हैI किन्तु कब? क्या सदैव शुभ फल प्राप्त होता रहेगा?I इसका निराकरण पाराशर ने उपुर्यक्त श्लोक में अन्तर्दशानुसारेण’ पद में कर दिया हैI अर्थात जब योगकारक ग्रह की महादशा में राहु का अंतर या राहु की महादशा में योगकारक ग्रह की अन्तर्दशा होगी, उस काल खंड में शुभ फल दे जायेगाI सदा शुभता नहीं देगाI मूल रूप में अशुभ ही रहेगाI जन्मांग के जिस भाव में राहु स्थिर हैउसे वृक्ष की छाया तले जमें पौधे की तरह पनपते नहीं है उच्च राशि का होने पर भी यदि लग्न में है तो शरीर को अस्वस्थ करेगाI विचार स्थिर नहीं होंगेI द्वितीय में है तो धन संग्रह और कुटुंब वृद्धि में बाधक होगा, वाणी कठोर होगीI तृतीय भाव में साहस की वृद्धि करना बताया है,परन्तु भाई के लिए अशुभ हो जायेगाI इसी प्रकार प्रत्येक भाव में अपना तम प्रभाव प्रदान करेगाI इसलिए चाहे योगकारक हो,चाहे उच्च राशि में हो, पराशर के कथनानुसार अपनी दशा अंतर में ही शुभ फलों की झलक दिखायेगI वह इसलिए कि कुछ काल के लिए शुभ ग्रह के अथवा उच्च राशि के प्रकाश से प्रकाशित हो गया हैI शुभ प्रभाव के हटते ही पुन:अपने मूलरूप में आ जायेगाI
राहु-केतु के विषय में उपर्युक्त विवरण लेना चाहिए आवश्यक है कि इससे राहु केतु की दृष्टि के विषय में निर्णय लेने में सुविधा होगीI
राहु-केतु की दृष्टि पर मतभेद का कारण यह है कि कुछ प्राचीन ग्रंथों में राहु-केतु की दृष्टि की चर्चा हुई हैI जैसे-
सुतमदनवांटे पूर्ण दृष्टिं तमस्य I
युगल दशम गेहे चार्ध्द दृष्टिं वदन्ति II
सहज रिपु गृहर्क्षे पाद दृष्टिं युनीन्द्रैःI
निज भवन उपेतो लोचनांधा: प्रदिष्ट II
उपयुक्त श्लोक में राहु की पंचम,सप्तम,नवम,द्वादश पूर्ण दृष्टि बताई गयी है इसके अतिरिक्त पाद दृष्टि का उल्लेख हैI सर्वार्थ चिंतामणि में व्यंकट का निम्नांकित श्लोक उपलब्ध है-
क्षीणेन्दु पाप संदृष्टिो राहु दृष्टो विशेषत:
जातो यम पुंर याति दिनै: कतिपयै:किल I I
-सर्वार्थ चिंतामणि अ० 10,श्लोक -66
वेंकट पुत्र श्री वैद्यनाथ दीक्षित ने लिखा है-
सिन्हासक स्थिते मंदे राहूणा च निरिक्षितेI
शस्त्र पीड़ा भावेत्तस्य चायु: पंच दशाब्दकम्I I
कर्काशंक स्थिते मंदे केतु दृष्टि समन्वितेI
सर्प पीड़ा भवेत्तस्य षोडशाब्दांमृति भवेत् I I
-जातक परिजात अo 4 श्लोक 66-56
वेंकट और वैद्यनाथ ने यह कही नहीं किया है कि राहु-केतु की कौन सी दृष्टी होती हैI
ज्योतिष श्याम संग्रह में कहा है-
सुतस्ते शुभे पूर्ण दृष्टिं तमस्य तृतीय रिपौ पाद दृष्टिं नितान्तम्I
धने राज्य गेहेऽधं दृष्टिं बदंति स्वगेहे त्रिपादं तथैवाह केतो:II
तात्पर्य यह है कि कुछ ग्रंथों में राहु-केतु की दृष्टि का उल्लेख है और वे दृष्टियां पंचम,सप्तम,और नवम बतायी गयी हैI इसके अतिरिक्त एकपाद, द्विपाद,और त्रिपाद दृष्टि भी मानी गयी हैI बृहत्पाराशर होरा शास्त्र का श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता हैI ज्योतिष यदि यह मूल पाराशरी में होता,तो वराह मिहिर इसका उल्लेख अवश्य करतेI उन्होंने बृहज्जातक के ग्रह भेदाध्याय में मात्र इन ग्रहों के नाम का उल्लेख किया हैI
राहूस्तमोऽगुरसूरश्च शिखी च केतु:
अर्थात राहु के तम,अगु तथा असुर और केतु का शिखी नाम हैI आगे पूरे अध्याय में राहु-केतु की कोई चर्चा नहीं हैI
महर्षि पराशर ने इनके विषय में कहा है-
यद्यद्भाव गतौवापि यद्यद्भावेश संयुतौI
तत्तद् फलानि प्रबलौ प्रदिशेतां तमो ग्रहौI I
अर्थात राहु केतु जिस-जिस भाव में हो तथा जिस-जिस भावेश के साथ के साथ हो,उसका फल प्रबल रूप से देते हैI अर्थात इनका अन्य दृश्यमान ग्रहों से भिन्न हैI
फलित ज्योतिष में राहु का स्थान-
अदृश्य ग्रह होने से इन्हें किसी राशि का स्वामित्व की इनकी जो बात जाती है वह बाद की कल्पना हैI संदेहास्पद हैI वस्तुत: राशियों के गुण धर्म देखने हुए केवल दृश्यमान ग्रहों को ही राशियों का स्वामित्व दिया गया है जो कि विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता हैI कक्षा के आधार पर जब सप्ताह के सात दिन निश्चित किये गये, तो दृश्यमान ग्रहों के ही किए गयेI षड्बल गणित में राहु-केतु का दृक् बल और चेष्ट बल नहीं दिया जाता I अष्टक वर्ग में केवल यवन जातक ने इन्हें सम्मिलित किया, अन्य किसी ग्रंथकार ने नहींI पाराशरी के व्याख्याकार विध्दानों ने इसका दूसरे ग्रह से सह स्थान सम्बन्ध माना है दृष्टि का सम्बन्ध नहींI यद्यपि कुछ विद्वानों ने राहु-केतु की स्व राशि की कल्पना की है जैसी आजकल युरेनस,नेप्च्यून और प्तूटों की जा रही है किन्तु ज्योतिष के प्राचीन ग्रंथों में राहु-केतु की स्व राशि और ग्रहों के नैसर्गिक मैत्री चक्र में इन्हें स्थान नहीं दियाI इनके स्थान परक फल मात्र दिये हैI ऐसी स्थिति में इन ग्रहों की दृष्टि होती है, यह कथन निम्नांकित आधारों पर संदेहास्पद हो जाता है-
1.दृष्टी का संवंध प्रकाश से है, वह चाहे मनुष्य की दृष्टि हो, चाहे ग्रह के परावर्तित प्रकाश कीI जब राहु-केतु दो गणितागत अदृश्य बिंदु है, ठोस आकाशीय पिंड नहीं, तो प्रकाश का परावर्तन कैसे होगाI
2.जब राहु-केतु को ‘तमो’ की संज्ञा दी गयी है तो क्या अंधकार की भेद दृष्टि होती हैI यदि राहु-केतु की दृष्टि है तो षड्बल गणित पध्दति में इनका दृष्टि बल क्यों नहीं लिया गया? मात्र सात दृश्यमान ग्रहों को ही क्यों लिया गयाI
3.यदि हम यह मान ले कि संवेदनशील बिंदु होने से इनकी कोई दृष्टि होती है तो महर्षि पराशर कथित सात अप्रकाश ग्रह-धूम, पात,परिधि,चाप,केतु,गुलिक,प्राणपद इनकी भी दृष्टि होनी चाहिए,क्योकि ये भी सन्देशनशील अप्रकाश ग्रह हैI यदि आप ताजिक पद्धति के 50 संदेनशील बिंदु ‘सहम’ को मान्यता देते है तो इनकी भी दृष्टि होनी चाहिए, किन्तु ज्योतिष शास्त्र में ऐसा कोई उल्लेंख नहीं मिलतेI
4.राहु-केतु की तीन दृष्टियां पंचम,सप्तम, नवम और तीन पाद दृष्टियां इस प्रकाश प्रत्येक की 6 दृष्टियां हुईI अर्थात यह दोनों ग्रह मिलकर बारह स्थानों पर दृष्टियों देगें,यदि नैसर्गिक अशुभ ग्रह शनि की भी 6 दृष्टियां तथा मंगल की भी 6 ले ली जाये, तो इन चार अशुभ ग्रहों की दृष्टियों का योग 6+6+6+6=24 हुआI भाव कुल 12 होते हैI इसका अर्थ यह हुआ कि कम से कम हर भाव पर एक अशुभ दृष्टि और कुल भावों पर एक से अधिक होगीI यदि फलों का विश्लेषण करें, तो प्रत्येक जातक का जीवन नारकीय हो जायेगाI
गुरु और शुक्र की शुभ दृष्टि अपनी शुभता से कुंडली को कहाँ तक बचा पायेगीI
5.यदि राहु-केतु की सातवीं दृष्टि मानते है तो एक विवाद उतपन्न होता हैI वह यह कि ये दोनों ग्रह सदा एकदूसरे से 180 अंश पर ही रहते हैI तो इनके अपने गुण प्रभाव का निरूपण कैसे होगाI सुत मदन नवान्तें,पद में पंचम,सप्तम,नवम, द्वादश दृष्टि कही गयी है जिसके आधार पर कुछ विद्वान राहु-केतु की पांचवी और नवीं दृष्टि मानते हैं किन्तु सातवीं को छोड़ देते हैं,क्योंकि उसमें रुकावट है I इसलिए या तो इस पद को पूरा का पूरा माना जाए या तनिक न माना जायेI विज्ञान में सुविधावादी दृष्टिकोण नहीं होना चाहिएI
6.यदि यह सत्य है राहु-केतु की पंचम नवम दृष्टि है और वह अशुभ है तो जाना चाहिएI यथार्थ में क्या ऐसा होता है? पाठक सबसे पहले अपने जन्मांग पर अनुभव करके देखेंI
हमारा यह आग्रह है कि प्रत्येक ऐसा ज्योतिषी,जो राहु-केतु की दृष्टि के विवाद के विषय में किसी निर्णय पर पहुंचना चाहता हैI
अन्य कुंडली बना रही चयन के लेकर देखे कि इन जातकों के राहु और केतु से पांचवे और नवें भाव तथा उनमें स्थित ग्रहों का क्या फल हुआ हैI यदि अशुभ या शुभ फल हुआ, तो किसी अन्य ग्रह का उस पर प्रभाव तो नहीं हैI अर्थात मात्र राहु-केतु की दृष्टि ही देखेंI इसके आंकड़े तैयारी करें, प्रतिशत निकालेंI यदि 90 प्रतिशत मात्र राहु-केतु की दृष्टि से अशुभ होते सिध्द हो,तो इनकी दृष्टि मान लेनी चाहिए, यदि ऐसा न हो, तो नहीं माननी चाहिएI
रश्मियों की दृष्टि से राहु-केतु की दृष्टि असंभव हैI हमने ज्योतिष के पराविद्या होने के कारण कि संभवत:कोई अदृश्य और तर्क से परे प्रभाव पांचवें नवें स्थान पर होता हो, भारी संख्या में यह प्रयोग करके देखा, तो पाया कि राहु-केतु का दृष्टि केवल कल्पना है यथार्थ नहींI
अपने अध्ययन और अनुसंधान के आधार पर हमारा सशक्त मत है कि राहु और केतु की कही भी दृष्टि नहीं पड़तीI उनका शुभ अथवा अशुभ प्रभाव उनकी संस्थिति और संयुक्त के अनुरुप सम्बंधित भाव,भावाधिपति और संयुक्त ग्रहों को प्रभावित करता हैI राहु-केतु का दृष्टि सम्बन्धी यह ज्ञान कालसर्प योग के शोधात्मक अध्ययन में अति उपयोगी सिध्द होगाI
कल्याण वर्मा ने सारावली में सर्प योग का विस्तृत वर्णन किया हैI शांतिरत्नम् में भी कालसर्प योग की चर्चा की गयी हैI जैन ज्योतिष में कालसर्प योग की संरचना का विवेचन विद्यमान हैI मणिक चन्द्र जैन ने अपना सम्पूर्ण जीवन राहु और केतु के उपर शोध करने में ही व्यतीत कर दिया तथा उन्होंने यह सिध्द किया कि ग्रहणकाल में सूर्य तथा चन्द्र के राहु और केतु की धुरी पर स्थित होने के कारण जिस प्रकार की स्थितीयां उत्पन्न होती है,उसी प्रकार की स्थिति कालसर्प योग में जन्म लेने वाले व्यक्ति के साथ भी पनपती हैI इसके अतिरिक्त उन्होंने कार्मिक कंट्रोल प्लेनेटस,जिन्हें हमने इस रचना में कर्म नियंत्रक ग्रह की संज्ञा दी है,को भी अपने शतत शोध के पश्चात् खोज निकाला, जिसके लिए ज्योतिष समाज माणिक चन्द्र जैन के प्रति कृतज्ञ रहेगाI
अनेक विद्वान कालसर्प योग प्रतिफल से किंचित भी सहमत नहीं हैI जिसमें प्रयाग के प्रख्यात ज्योतिर्विद डॉo गिरिजा शंकर शास्त्री तथा वाराणसी के डॉo नागेन्द्र पाण्डेय आदि मुख्य हैI उनका कथन है कि प्राचीन ग्रंथों में ऋषि मनीषियों ने जो कुछ अंकित किया है क्या उसकी वास्तविकता से हम पूर्णत: परिचय हैI इस विषय में क्या कोई शोध करना उचित नहीं? आयुर्वेद के विद्वानों ने कैसर को असाध्य व्याधि मानकर उसकी कोई चिकित्सा का उल्लेख नहीं किया, तो क्या कैंसर ऐसी भयावह पर शोध नहीं किया जाना चाहिए? प्रगति के लिए शोध-कार्य अनिवार्य हैI जिस क्षेत्र में अनवरत शोध-कार्य होता रहता है, उसकी प्रगति तथा प्रतिफल सुनिश्चित होता हैI
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